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Ravi Purohit

Abstract

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Ravi Purohit

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श्राद्ध के भूखे सुन

श्राद्ध के भूखे सुन

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सुन रे कौवे

मेरी सुन

ओ श्राद्ध के भूखे सुन !


इतना ना इतरा

कागोश के मेरे निमंत्रण पर,

दुनियावी मजबूरी पर मेरी

इतनी न हेकड़ी दिखा


तू जानता है अच्छे से

कि इतना मान तो हमने

जीते-जी न दिया पुरखों को

प्रीत का तर्पण

अपनी समझ के साथ ही कर दिया था

नेह का ग्रास

और सम्मान की थाली

सदा कल्पनातीत रही 

मृत आत्माओं के जीवन-काल में भी


श्राद्ध परंपरा की

हमारी लौकिक मजबूरी को

इतना न भुना रे काले

वरना श्राद्ध-पक्ष के बाद

तेरा क्या हश्र होगा

जानता है ना तू ! 


छोड़ यह नौटंकी अब

और खा ले खाना है तो

वरना पिंजरे में बंद कौए के आगे

फैंक आऊंगा यह कागोश !


सुन रे काले कौए

कागोश !

कागोश !



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