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Shyama Sharma Nag

Abstract

4.9  

Shyama Sharma Nag

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शिक्षक के मन से

शिक्षक के मन से

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मैं यूँ ही बेवजह इतराता रहा

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा

भ्रम में था वोह मेरे अपने हैं ,

अपनों से भी ज़्यादा, वोह मेरे सपने हैं,

उसके सपनों की डोर को सहलाता रहा,

स्वयं को सदा यूँ भरमाता रहा।


मैं यूँ ही बेवजह इतराता रहा,

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा।

मुकम्मल उसे करने की होड़ में रहा,

अपने ही वजूद से जूझता रहा,

उसे जोड़ता रहा ख़ुद टूटता रहा,

द्रोण बन मैं उसमें, एकलव्य ढूँढता रहा।


मैं ढूँढता रहा उसमें अपनेपन के निशां,

मैं ढूँढता रहा उसमें सभ्यता की ज़ुबां

बेवजह उसकी तल्ख़ियाँ सहेजता रहा,

उसे यूँ ही अपना बताता रहा,

मैं यूँ ही बेवजह इतराता रहा,

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा।


न मैं ब्रह्मा-विष्णु, न ही मैं महेश,

बस इन्सां ही रहने दो, न करो कोई क्लेश,

बेआबरू के भँवर में कसमसाता रहा,

यही दुख मुझको बस सालता रहा,

मैं यूँ ही बेवजह इतराता रहा,

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा।


कमी कोई न थी दशरथ - महल में,

कर्मठ - राह की न करते पहल वे,

छत्रछाया वशिष्ठ की न आते यदि राम,

मर्यादा -पुरुषोत्तम न कहलाते वो राम।

आसमां की ऊँचाइयों में उसे ताकता रहा,


अक्स को उसके ,बुलंदियों में भाँपता रहा

घरौंदे मैं रेत के बनाता रहा,

मैं ख़ुद को ही ख़ुद से झुठलाता रहा,

मैं यूँ ही बेवजह इतराता रहा,

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा।


मसलों को मैं तेरे सुलझाता रहूँगा,

कर्मठता की राह पर चलाता रहूँगा,

न तोड़ूँगा तुझसे नाता मैं अपना,

मुद्दतों तक तुझे अपनाता रहूँगा

मुद्दतों तक तुझे अपनाता रहूँगा।


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