शायद अब मैं बूढ़ा हो गया
शायद अब मैं बूढ़ा हो गया
जाने कब मैं बड़ा हो गया
अपने पैरों पर खड़ा हो गया,
वक्त का साया ऐसा था
न धेला था न पैसा था,
पढ़ाई लिखाई कारोबारी
चल रहे थे बारी-बारी,
घर का बड़ा लाडला बेटा
कंधों पर थी जिम्मेदारी,
मां-बाप और बीवी-बच्चे
रहते मिलकर सारे इकट्ठे,
मोह का सारा ताना बाना
बन्द हुआ सब आना-जाना,
कितना खोया कितना पाया
जीवन का भेद समझ में आया।
न गोरा है न काला है
ये तो मकड़ी का जाला है,
जो पीछे-पीछे फिरते थे
अब कहां पूछते हाल मेरा,
स्मर्पित था बस स्मर्पित हूं
यही जीवन का सार मेरा,
अब ना हूं किसी काम का
सबका मक़सद पूरा हो गया,
तनहा रहना जीवन का फल
शायद अब मैं बूढ़ा हो गया।