जो होते थे,शादी पहले स्वतंत्र कोहिनूर है
वो पुरुष शादी बाद हो जाते है, मजदूर है
यकीन नही हो तो पूंछ लो,शादीशुदा,पुरुष है
कैसे बने शादी बाद वो अपने घर के अमचूर है?
गृह मजदूर की कविता सुनो साखी से भरपूर है
दिन भर परिवार के लिये,देखता वो तो धूप है
दुःख तब होता,जब अपने ही देते दोष,खूब है
वो भी किनके लिये,बोल रहा रोज ही झूठ है
बिना स्वार्थ के रिश्तों की खोज उसकी भूल है
बाहर मजदूरी अच्छी,पर घर पर वो मजबूर है
वो सोचता शादी बाद कैसे खट्टे हो गये,अंगूर है
इस दुनिया मे बस एक ही किस्सा मशहूर है
आदमी सबको समझा सकता,घर पर मजबूर है
मजदूरी करना कोई गुनाह करने का नही शूल है
मजदूरी ने तो जबकि पत्थरों पर खिलाये,फूल है
तुझे भले कोई नही समझे,शादीशुदा मजदूर है
खुद के व्यवहार से कर,नफरतों को चकनाचुर है
आज शोलों को भी बना दे,तू शबनम की घूंट है
चंदन कटकर जैसे महकाता,वातावरण भरपूर है
तू भी कोहिनूर बन मिटा,दिलों के अंधेरे सुदूर है
लोग चाहे तुझे कितना कहे,एक बंधुआ मजदूर है
कह दे,हां हूं में परिवार सेवा करनेवाला मजदूर है।
दिल से विजय
विजय कुमार पाराशर-"साखी"