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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Abstract

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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सदा से झूठ ये लँगड़ा रहा है

सदा से झूठ ये लँगड़ा रहा है

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हमेशा से बहुत तनहा रहा है ।

हमारे दिल का जो कमरा रहा है ।।


सितम हम पर बहुत करता रहा है ।

हमारे दिल का जो टुकड़ा रहा है ।।


उसे कैसे फना समझूँ भला जब ;

मेरे अंदर सदा जिन्दा रहा है ।


बिना बैसाखियों के क्या चलेगा ;

सदा से झूठ ये लँगड़ा रहा है ।।



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