सच के जुगनू
सच के जुगनू
रात-रात भर जाग कर
लगा रहता हूं
जुगनू चुनने में
मन करता है
समेट कर झोले में
इन जुगनुओं को
निकल जाऊं
वक्त की मार से फैले
अंधेरे के बियाबान में
बांटता चलूं
रोशनी के वंशज ये जुगनूं
उनके भरोसे
और नियति से पथराती
आंखों को
सदियों से
अंधेरे के अभ्यस्त सपने
दमन की सीलन से
भुरभुरा-बिखर गए है
स्वयं के होने को
नकारने लगे हैं
जिनके वजूद
आश्वासनों की
पीक-से भरी सीढियों
तले की दीवारों
और भरोसे की
तंग गलियों -नालियों में
गजबजाते-मरे
सपनो के कंकाल
जी रहे है प्रतीक्षा को
युगों-युगों से
सलीके से
अंतिम क्रिया की सनातन भूख
के पैबंद लगे
बचपन की हथेली में
रख देना चाहता हूं
जुगनू
विश्वास का
दीप भरोसे का
भर लेना चाहता हूं
उम्मीद के थैले में
सच के जुगनू
समय की
तमाम ज्यादतियों को अनदेखा कर
क्या पता ?
बूढ़ाते पेड़ के जड़ कोठर में
फिर फूट पड़े कोई बीज।