साथ
साथ
सात वचन थे साथ निभाये,
प्रेम की ऐसी रीत गढ़ी।
मैं-तुम, तुम-मैं रहा नहीं कुछ,
हम की ऐसी प्रीत गढ़ी।
अन्न-क्षेत्र प्रयत्न द्वैत थे,
एक आपूर्ति एक पूर्ति।
बल भुज या मन जैसा भी,
एक दूजे के बने सदा।
धन का अपव्यय हुआ कभी न,
मितव्यय को ही लक्ष्य किया।
सुख-साधन भौतिक भी पाये,
चित्त को सदा ही प्रसन्न रखा।
पूर्ण गृहस्थ सिद्धान्त साधकर,
प्रथम सदा कुटुम्ब रखा।
जीवन जिया यूँ दोनों ने,
साथी के हेतु ही जिया।
शिव-शक्ति हो एकाकार,
मित्र की भाँति रहे यहाँ।