सांझ का इन्तजार
सांझ का इन्तजार
हर सांझ तुम्हारी नजर
मेरे चैहरे पर टिक जाती,
मैं अचकचा जाती
अपना चैहरा आईने मे निहारती।
तुम पीछे से आकर
इक मुस्कान बिखेर देते,
मुझे और इक नयी
उलझन में डाल देते।
उस दिन जब तुमने
थाम कर मेरा हाथ,
कह डाला जो अपने
दिल का हाल।
सुनो, तुम कितनी अच्छी हो
छिपाकर अपने दिल की,
इच्छाओं को
रहती हो हरदम तैयार।
घर में बड़ों को क्या चाहिए
और बच्चों की क्या है मांग,
याद रहता बस तुम्हें
हमारा ही हरदम खयाल।
तुम्हारी उपस्थिति ही घर में
ला देती है खुशहाली,
तुम हो तो घर है बगीचा
नहीं तो वीराना लगता है।
सोचता हूं तुम न हो तो
क्या ये घर चल पाता ?
और जो तुम न हो तो
मकान घर बन पाता?
मैं ठगी सी सुनती रही
तुम्हारे मन की मधुर तान,
आज नहीं है कोई शिकवा
है सांझ का इन्तजार !