साक़ी
साक़ी
यूं तो हर कोई इस जहां में पीता है पीना तो वो है जो तेरे नैनों से पीए साकी ।
करते हैं खुद को बर्बाद तेरे इश्क में , तुम कहते हो मय ने हमें बर्बाद किया ।
चल रही है सांसें अभी ये तेरे इश्क - ए - मय की मेहरबानी है ।
कैसे कहें कि तुम्हारे नशीले नैनों की हाला ने हमें बर्बाद कर दिया ,
हो इतने मासूम तुम, कि हमने तुमसे गिला भी नहीं किया ।
कैसे कर दूं आज़ाद तुम्हें , मेरे बहकाने की सज़ा तो तुम्हें झेलनी होगी ।
करता हूं मय से तोबा मगर तेरे नैनों की हाला में डूब जाता हूं ।
पूछे कोई मयकशों से छलकते हैं क्यों पैमाने , नीमबाज आंखों में शराब सी मस्ती होती है ।
तु साक़ी , तेरी निगाह मयकदा , समाया है सारा मयख़ाना तुझमें ।
हम तो हो चुके बर्बाद आबाद रहे तेरा मयख़ाना , यहां ज़िन्दगी का हर दर्द मिटता है मेरा साक़ी ।
मैंने खाई थी कसम मय ना पीने की , मगर तु नैनों की मदिरा पिला दे तो मैं क्या करूं ।
ना निगाहों से पिला , ना हाथों से पिला , मज़ा आएगा जीने का एक बार दिल से पिला साक़ी ।
खुद को बेचा , दिल को बेचा , बेच दिया घर-बार अपना, अब तो तेरे दिल में ही घर बनाऐंगे साक़ी।

