रोने का हक़ खोया मैंने
रोने का हक़ खोया मैंने
जानती हूं मां
जिस दिन तेरे गर्भ में मेरा बीज पड़ा था
तू हर्षाई थी।
मेरे दिल की पहली धड़कन
जब तेरे दिल को छूकर
मुझ तक आई थी
मैं भी तो हुलसाई थी।
मेरे नन्हे शरीर को हाथों में थामे
जाने क्या बोला करतीं तुम !
दादी के लिए
तुम बस, उनके बेटे की ब्याहता रहीं,
पापा के लिए भी
तुम कमला, बिमला, इंदु या बिंदु नहीं
बस, ‘ ए जी, सुनो जी ‘ ही रहीं;
दिन भर ‘ जी, जी ‘ कहतीं
पर भैय्या से, दीदी से, मुझसे
बातें करते ना थकतीं।
तुम्हारा चौका हमारा किला होता।
दादी, पापा की घुड़की से
बचकर हुड़दंग मचाने का मैदां होता।
होड़ लगाते
कौन पर्त रोटी की पहले खोलेगा,
तुम सचेत
माथे के पसीने की बूंद न पड़ जाए
बेली जाती रोटी पर;
कुछ हिस्सा रह जाएगा बिन फूला,
पर्त न उघड़े तो
हममें से कोई हारेगा।
तुम घर की श्री रहीं,
सबके जीवन की
धुरी रहीं।
भैय्या – भाभी, फिर दीदी, अब मैं भी
अपने अपने ठौर बसे।
तुम बैठे बैठे
ताका करतीं हो सूने कमरों को,
अनमनी सी डाला करती हो
पापा की थाली में फूली रोटी को।
पापा के देखतीं,
न देखतीं अपने बालों की चांदी को;
यदा – कदा बुलाया करतीं
हम को
कुछ पल साथ बिताने को,
सूना घर भर जाने को।
भूले से ही हम आते अब।
हाथ बढ़ाते
छूने पांव तुम्हारे,
पपड़ाए पांव नहीं, चांदी पायल ही दिखलाई देती
जाने किसके हिस्से में आएगी
सोचा करते।
चौके की गर्मी से, फूली रोटी से,
पापा की चुप निगाहों से
तुम्हारी मनुहारों से
जल्दी ही सब उकता जाते,
झुकी हुई आंखों में चांदी की पायल भर
संग ले जाते।
अपनी खिड़की पर बैठे
सोच रही हूं
तुम्ही को तो मैं सालों से जीती आई हूं मां।
तुम जब तक अपना सर उठाने की
फुर्सत पातीं
सारी खिड़कियां बंद हो रहतीं;
मैं जब भी देखूं
बस खुली खिड़कियां ही मिलतीं।
इतना ही तो बदला है
इन बीते सालों में !
मेरी, या तुम्हारी नहीं
हर मां की यही कहानी है।
आश्रय को, आश्रयदाता को लतियाना
चरम सत्य है;
गर्भ में पलते शिशु का पहला पदाघात
यही चेताता है।
पर मां का दिल कब मानता है !
पूछा जाए गर मां से
क्या पाया, क्या खोया तुमने
शायद वह कह दे –
जग पाया पर
रोने का हक़ खोया मैंने।
