रोज का बलात्कार
रोज का बलात्कार
वो रोज उसे नोचता - खरोंचता, और कहता उसे प्यार ...
वो थकने लगती उसकी वासना से, और चले जाने को कहती हर बार ।
उसकी भूखी निगाहों से अब, डर लगता है उसे बार - बार,
ऐसा लगता मानो ये जीवन उसका ,यूँ ही चला जायेगा बेकार।
उसके पास ऐसा करने का, पूरा - पूरा जो है अधिकार,
वो ब्याहता है उसकी अब, तो करे भी तो कैसे करे इनकार।
कभी - कभी वो सोचा करती, भाग जाए कहीं छोड़ ये संसार,
मगर ठिठक जाते कदम ये सोच, बाहर का होगा और बुरा संसार।
धीरे - धीरे वो मरने लगी, सहते - सहते रोज का बलात्कार,
घरेलू हिंसा से भी ज्यादा भयानक था ,वो हर पल का मानसिक अत्याचार।
वासना भले ही एक जरूरत हो, मगर जरूरत से ज्यादा है बेकार,
असली प्यार उसी को कहेंगे जिसमें, स्त्री भी मर - मिटने को हो तैयार।।
