रिश्तों की पोटली
रिश्तों की पोटली
अँधेरों में दर बदर हो
ढूंढ़ती हूँ अपनो के दिल में
अपने लिए तिनका भर
चिराग लिए वो प्यार.....
शायद दिखावे के लिए ही
मिल जाए मुझे अपनो का
वो प्यार...
फिर से जीने की खुशी में
ला दूँ नव रँग भरी वो बहार.....
समेट लूँ फैलाकर दामन का आंचल
अपनी रोती हुई आँखों को दिखा दूँ
आकाश भर सपने
फिर से लौट आए जीवन में
अपनेपन की बूँद - बूँद वो फुहार...
फिर सहेजकर रख लूँ या गांठ बाँध लूँ
अपने दुपट्टे की एक कोने में
जो बरसो पहले बिखर गई थी
वो रिश्तों की पोटली
जिसका मुद्दतो से था बेहद इंतजार
आज कुछ कर जाऊँ और मिल जाए
मेरे हिस्से का चुटकी भर ही सही वो प्यार....
जिसे छीन लिया गया था मुझसे,
दुनियां में आने के बाद
देखकर मेरा स्वरूप,
साँवला रंग रूप या बेटी रूप में देखकर
किया सबने शिशुपन में ही मेरा बहिष्कार.....
शायद मेरे भाग्य में लिखा ही है
ताना - बाना से परिपूर्ण जीवन का वो सार.....
जबसे जन्मी हूँ, इधर-उधर भटकी हूँ
हर उलाहनो का बनकर हर वो शिकार...
पर अब मैं बड़ी हो गई हूँ,
चाहिए मुझे बेटी का हर वो अधिकार.....
समेट लूँ अपने दिल की हर गहराई में
पिरो लूँ अपने शब्दों से .....
उसमे प्रीत की चाशनी लगाकर
हर वो रिश्तों की पोटली को
जिससे मुझे मिल जाए वो भूली बिसरी ही सही चुटकी भर प्यार...
जिसमें नहाकर मैं तर हो जाऊँ
जी लूँ क्षण भर में सम्पूर्ण संसार......।।