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Zeba Rasheed

Abstract

4.3  

Zeba Rasheed

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रिश्तों की धूप

रिश्तों की धूप

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अब

कैसे बचे हम

टूटे रिश्तों की धूप व बारिश से

कमज़ोर रिश्तों की बना ली

छतरियां हमने।

अपनों से जूदा होकर

बना ली

छोटी-छोटी टोलियाँ हमने


परिवार की पहचान खोकर

जिन्दगी के सफ़र में

रह गए अकेले हम

दुश्मनी के धुएं से

कैसै बचे अब हम।


परिवार के लिए

नहीं रखी अपनेपन की

खुली खिड़कियां हमने

बनकर स्वार्थी

बना ली

छोटी-छोटी

कश्तियां हमने


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