रिश्तों के मोती
रिश्तों के मोती
कहाँ है माला कहाँ है मोती
स्वयं आज मैं ढूँढ़ रही।
बिन वर्षा सौहार्द स्वाती
मनमुक्ता भी अब सूख रही।।
पिरोये थे जो मनके
निज अंर्तमन की माला में।
बिखर रहे हैं बनकर तिनके
परस्पर रश्क की ज्वाला में।।
बात अगर होती मूल की
सहर्ष गरल पी जाती।
यथासाध्य मूल्यों की
अनुगतिका बन जाती।।
मगर झुलसें इसमें नई कोपलें
ये मुझे स्वीकार नहीं।
निर्बाध रसिका अब तो कहले
ये जीवन का आधार नहीं।।
सच को सच जो कह न सके
नहिं मृष-मिथ्या का प्रतिकार।
प्रश्न जाल शब्दों के
बुनने का नहिं उसको अधिकार।।
तटबंध तोड़ मर्यादा के
कुछ लहरें उफन रहीं।
सर्वग्रही सौन्दर्य-सर्वदा के
बंधन को गहरे दफन रहीं।।
करूँ मैं कैसे परिभाषित
मूल्यों की गौरव-गाथा।
जब जुगनू भी करे सम-भाषित
हीरक की चिर संघर्ष व्यथा।।
हैं आज वही रिश्तों के मोती
पर माला कुमति कुहासाच्छादित।
पुनः आए इनकी निर्मल ज्योति
करें यत्न सम सुमति शुभांछित ।।
अन्यथा कुएँ का मेंढ़क बनके
अपनी ही टर्र-टर्र गाएँगें।
रिश्तों में छिपे सप्तराग के
स्वर कभी ना बन पाएँगे।।
अनमोल रत्न हैं जीवन के
ये न बिखरने पाएँ।
बन सच्चे सारथी धूप-छाँव के
संग शिखर पर चढ़ते जाएँ।