रेलवे स्टेशन की सच्चाई
रेलवे स्टेशन की सच्चाई
थका हुआ मुसाफ़िर उतरता जब रेल से,
उम्मीद लिए कि अब पहुँचा है ठिकाने पे।
पर बाहर कदम रखते ही सच सामने आता,
किराए की लूट का मंजर मन को चुभ जाता।
कोई रेट नहीं तय, कोई नियम नहीं साफ़,
हर ऑटो वाला बोले अपनी मर्ज़ी का भाव।
यात्री करे भी तो क्या, मजबूरी का शिकार,
थकान से टूटा मन, जेब का भी हो संहार।
भीख माँगते बच्चे, मासूम चेहरों की भीड़,
कौन असली, कौन झूठा — कोई न दे समझ की पीर।
कुछ छोटे हाथ बढ़ जाते जेबों की ओर,
और राहगीर रह जाता अपनी विवशता में चोर।
आरपीएफ के जवान, चौकी के सिपाही खड़े,
फिर भी घटनाएँ बढ़तीं, कोई सवाल न गढ़े।
यह चुप्पी, यह मौन, सबसे बड़ा अपराध,
जहाँ डर में है जनता, वहीं कमजोर है राज्य।
ज़रूरत है प्रण की, ईमानदार निगरानी की,
रेल की शान रहे, जनता की कहानी की।
हर स्टेशन पर सुरक्षा का उजियारा हो,
भरोसे की यात्रा, यही हमारा सहारा हो।
यात्री का हक़ है सम्मान और सुकून,
न कि जेबकटी, ठगी और खामोशी का जूनून।
रेल का सफ़र बने विश्वास का प्रतीक,
जहाँ इंसानियत जगे, और इंसाफ़ हो अतीक.....D.T
लेखक : देवाशीष तिवारी ✍️
