अधूरी देह — अधूरे सच
अधूरी देह — अधूरे सच
वो चलती है गलियों में, परछाइयों के बीच,
हर मुस्कान के पीछे एक टूटी चीख।
ना चाह से बिकी, ना शौक से गिरी,
बस ज़रूरतों ने उसके कदमों को जकड़ी।
समाज कहता है — “वो बेवफ़ा है”,
पर किसी ने पूछा? उसकी वफ़ा कहाँ रखी गई थी?
जिसे खो दिया पति के नाम पर,
उसकी साँसों का हक़ भी किसी ने छीन लिया था।
वो अब किसी की रातों का सहारा बनती है,
मगर सुबह वही सबसे बड़ी पापिन कहलाती है।
जिसे ज़िंदगी ने ठुकराया,
वो अब ठोकरों से अपना संसार सजाती है।
हर आलिंगन में कोई कमी नहीं होती,
बस दिल खाली — और आँखें बेजान होतीं।
वो देती है गर्मी, पर खुद बर्फ़ बनी रहती है,
हर हँसी के पीछे — एक रुलाई छिपी रहती है।
बेवफ़ा नहीं है वो, बस टूटी हुई है,
जिसे दुनिया ने धकेल दिया अंधेरों की गली में।
वो “पाप” नहीं, “परिणाम” है उस समाज का,
जो औरत को सिर्फ़ देह में तौलता है,
दिल में नहीं....D.T
लेखक : देवाशीष तिवारी ✍️
