रामाश्रम।
रामाश्रम।
चल पड़ा था अनचाही ड़गर पर, पता नहीं क्या थी वह मंजिल ।
वासनाओं ने बिछा अपना जाल, कर दिया जीना मेरा मुश्किल।।
बिन पिये लड़खड़ाते कदम, बढ़े जा रहे थे तृष्णा लिए।
संसारी चकाचौंध में ऐसा खोया, पाने की सिर्फ लालसा लिए।।
नहीं जानता कौन रोक रहा था, चाहता करना इनायत मुझ पर।
कोई तो है, हमदर्द मेरा, जो पकड़ रहा था बाँह कसकर।।
अहंकार वश समझ ना सका, माया -जाल पड़ा था मुझ पर।
समय-समय पर चेताया मुझको, पता नहीं कृपा थी मुझ पर।।
अंतर्मन से एक आवाज सी आती, विवेक जागृत वो है करती।
रहमत करना है काम उनका, जो तुमको है रोका करती।।
तब जाकर कुछ समझ है आया ,मेरे मुर्शिद की थी निगाहें मुझ पर।
भटकों को राह दिखलाना, पता नहीं किस रूप में आकर।।
पता चल गई अब मंजिल मुझको, खत्म होती जो जन्नत में जाकर।
बलिहारी है "नीरज" अपने गुरु पर," रामाश्रम" रूपी सत्संग पाकर।।
