रामाश्रम
रामाश्रम
हे !ईश्वर की अमूल्य कृति ,तू क्यों इतना इठलाता है ।
तू धरोहर है किसी और की, बेवजह मुस्काता है।।
चौरासी लाख जन्मों को काट, बड़े भाग्य मानुष तन पाया।
माया ने ऐसा जादू डाला, असली मकसद मैं समझ ना पाया।।
ऐसो -आराम पाने के खातिर, तुमको ही मैं भूल गया।
जब टूटे गर्दिश में तारे ,चौहु- दिश अंधकार में डूब गया।।
तुमने तो हमेशा मुझको सादा, काम ,क्रोध, लोभ मैं छोड़ ना पाया ।
शर्मसार होने के खातिर ,अन्तरवेदना को मैं कह ना पाया।।
तुम तो रखते सबकी खबर हो, वरद- हस्त सब पर ही रखते।
श्रद्धा- विश्वास कैसे मैं लाऊँ, विषय -वासना हरदम घेरे रखते।।
सत्संगी तो बन ना पाया ,ना ही ले पाया नाम तुम्हारा।
पुण्य की तो बात ही छोड़ो , गलत काम का ही लिया सहारा।।
लेकिन फिर भी आस लगी है, भटके को तुम राह दिखलाते।
अंतिम विनय है इस "नीरज" की, "रामाश्रम" में पापी भी तर जाते।।