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राह

राह

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कागज के कोरे पन्नों पर,

अरि को सारे वन्दन हों,

जब आसमान के गर्जन में,

आफत वाले क्रन्दन हों।


जब संविधान की मर्यादा का

चीर उछाला जाता हो,

जब चौराहों पर बेवाओं सा

वेश बनाया जाता हो।


बर्बादी का ज़िस्म ओढ़ती,

चाह कहाँ ले जायेगी ?

ये राह कहाँ ले जायेगी,

ये चाह....


अरमानों का गला घोंटती,

रोजगार की लाचारी,

पल-पल बुझती उम्मीदों की

बची-खुची सी चिंगारी।


पेट-पीठ का सिकुड़ापन ले,

हाथ पसारे जनता है,

बलिदानों की टोह लगाकर

पर्व तन्त्र का मनता है।


बलि-वेदी पर लहू चढ़ाती,

आह ! कहाँ ले जायेगी ?

राह कहाँ ले जायेगी ये,

चाह कहाँ ......


जितना दिखता, उतना बिकता,

नियम यही इस मण्डी का,

पौरुष जब अभिशप्त पड़ा तो,

पूरा दौर शिखण्डी का।


दुःशासन भी भरा दम्भ में,

अट्टहास फिर करता है,

कनक-हिरण का वेश धारकर,

राम-लखन को छलता है।


मर्यादा के चीर-हरण की,

थाह ! कहाँ ले जायेगी ?

ये राह कहाँ ले जायेगी,

ये चाह....।।


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