रीति-रिवाज
रीति-रिवाज
रूप के अंगार में दहना जरूरी,
भूख का अवसान होना भी जरूरी !
रोकने को ताप चलती हैं हवायें,
बुझते हुये भी आज जलना है जरूरी !
उदराग्नि कितनों की मिटाने,
अग्नि ! तुम जलना सतत !
आयु की ये लकड़ियाँ छोटी बहुत,
फूँकनी से दम निकलता है बहुत !
कर्म की संयोजना का चौक-चूल्हा,
पाप या निष्पाप के चावल बहुत !
देह की हांडी, मनुजता नीर से,
सौम्यता आहार तुम बनना सतत !
बुद्धि की जर्जर हुयीं ये भीतियाँ,
कुछ अधूरी सी पड़ी हैं नीतियाँ
काम आ जायें थोड़े से अगर,
तो सही हों, मानवों की रीतियाँ
लूटने सर्वस्व दम्भी-भूमियाँ (पर)
साधकों से काम न होंगे गलत !
