बंन्धन और मोक्ष
बंन्धन और मोक्ष
घनीभूत पीड़ा के तम में,
आशाओं के उजियारे हैं,
चारों ओर लकड़हारे पर,
देखो! पेड़ कहाँ हारे हैं..!!
मेघों ने जब ओट बनाकर,
सूर्य किरण को ढँका घनेरा,
वक्ष चीरता वही जलद का,
निकला उजला नया सवेरा।।
धुँधला-सा परिवेश हुआ पर,
आशाओं की डोर बँधी थी,
अंधियारों का डेरा दिशि पर,
उजियारे की साँस थमी थी।।
अंतिम क्षण तक के साहस से,
आखिर! यम तक भी हारे हैं!!
आसमान से बरसी आफत,
पंछी! को टिकना था अंदर।
उड़ा खुशी से नील-गगन में,
समझा खुद को बड़ा सिकंदर!
आफत की आंधी ने लपका,
पंछी! विकल अकेला रोया,
क्यों निकला मैं घर से बाहर,
मानो! मैंने सब कुछ खोया।
रुका! मनुज जो अपने भीतर,
उसने सब बंधन टारे हैं!!