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क़ैद

क़ैद

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कभी कभी बहुत मन ब्याकुल से हो जाता है,

बैचेन परेशान, दम घुटने लगता है।

छटपटाता हुआ मन, गरज के बोलता है,

यहां से भाग जाऊँ और छुप जाऊँ कहीं।

दूर इस सबसे दूर, एक कमरे में,

पर क्या ये संभव है ?

या शायद मैं कभी इतनी कोशिश ही न कर पाई।


पर दिन में तीन -चार बार,

ये विचार मन मे आ ही जाता है।

के ओझल हो जाऊं मैं कुछ क्षण के लिए सही,

और बन्द करलू खुदको एक कमरे में,

बैठूं इत्मिनान से, गुनगुनाऊँ,

अपने विचारों को सुनूँ, खुदसे दो पल

बातें ही सही कर लूँ।


सालों से पड़े यादों के बक्शे को खोलूं,

और कविताओं के पुल बनाऊँ,

सारी यादों को पुल के सहारे दूसरी ओर भेज दून।

मन करता है आज़ाद करदूँ,

यादों को उस पुराने बक्से के क़ैद से,

और खुदको उन पुरानी यादों के क़ैद से।


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