पूर्ण और अपूर्ण....
पूर्ण और अपूर्ण....
पूर्ण होकर भी एक अकेला, अपूर्ण दिखाई देता है,
रात के बीना दिन का, कहाँ अस्तित्व दिखाई देता है।
जो समझता है पूर्ण उन्हें, आवरण दिखाई देता है,
आवरण के भीतर देखने का, हुनर कहाँ दिखाई देता है।
चहुंओर धन ऐश्वर्य का, मंजर दिखाई देता है,
आवरण ओढ़े हुए हर शख्स, मुस्कुराता दिखाई देता है।
विकास और क्षरण से परिष्कृत, ये जहाँ दिखाई देता है,
सत्य सामने खड़ा है पर, स्वार्थ में कहाँ दिखाई देता है।
अपनी ख्वाहिशों में लिप्त जमाना दिखाई देता है,
सेवा करता कहाँ, कुदरत का हर पल दिखाई देता है।