पुनः वही प्रश्न !
पुनः वही प्रश्न !
सृष्टि के अतीत का
घनघोर वह अज्ञात
विस्मित तुम्हें देखता है
मनु....
ताम्रवर्णी श्रद्धा के
स्नेहतप्त आमंत्रण को
पूर्व क्यों नहीं छुआ ?
पश्चात हुए हर संधान
स्नेहिल समर्पण के
संभव नहीं थे श्रद्धा
दो-एक क्षण पहले
कि संसृति की अधिकाधिक कामना
शून्य में प्रबल होती है
पुनः वही शून्य
सृष्टि का वही भयावह अज्ञात
प्रश्न करता है राम
क्या तय था तुम्हारा आगमन,
उस अमांसल और अमानस-सी
कठोर गर्जना के उपरांत ?
एक शांत- प्रशांत अथाह
संवेदना का महासागर लिए
निर्जन से चली पगडंडी
अपनी ही अनुगामिनी है
निरर्थकता और अनछुएपन में
कोसों का समीकरण
ज्ञात है उसे, भिज्ञ है
हर 'क्यों' का आरंभ 'कहीं' होता है
जो प्रश्नों और सहानुभूतियों के
ताने-बाने में घिरा
निर्लिप्त और शांत है
किंतु अपने अहम की प्रतिष्ठा में
प्रश्नित करता है मनु को
और कभी श्रद्धा को
राम को तो कभी
गौतम की हठधर्मी को कि
अहल्या के पाषाण रहने में
राम की मर्यादा का
पोषण भी होता है
अहल्या का पाषाण
हर युग में उसे
नवजीवन देता है
नववेदना के महादान से
आश्वस्त बना देता है कि
व्यथा के स्वरों में समाहित
उसका रुदन सार्थक है
और गौतम के तथाकथित 'श्राप' से
राम के 'सामर्थ्य' तक
उसका 'मैं'
शेष है, शेष है, शेष है !