" पति का बटुआ "
" पति का बटुआ "
बंधन हमारा जब हुआ ,
थी तेरी मैं प्राणप्रिया
अंग - अंग प्रणय हुआ ,
मन ने फिर मन को छुआ I
वो आसमानी सात रंग ,
छाई मन में जैसे उमंग I
कह रहे खुशिंयों के रंग
हाथों से हाथ का मिलन
धरा ने जैसे आसमां छुआ I
गए हम फिर एक दिन बाज़ार I
मन हुआ कि दूँ मैं भी
कुछ उन्हें उपहार ,
गुलाबी रंग का उन्हें इक बटुआ दिया,
झट से उन्होंने
मेरा फोटो बटुए में लगा लिया I
आज वो सुनहरी रात थी,
हम दोनों में बात थी ,
और फिर आंचल उड़े,
दो बदन फिर जुड़े ,
आँखों में चलता जुआ,
जाने कब भानु ,
खिड़की पर आ खड़ा हुआ I
फ़ोन की घंटी बजी,
रह गई थाली यूँ ही सजी I
उधर से आवाज में
जो भरी टंकार थी,
बॉर्डर पर वापसी की वो पुकार थी I
मैं न हुई यूँ अधीर थी,
संगिनी मैं सैनिक की जो वीर थी ,
खुद को किया तब एक - सा,
वो देख मुझे, दे रहे थे टेक - सा I
वो बोले कड़क आवाज में,
आवाज है ये देश की I
लौट कर आया न अगर ,
आस तो रखना भेंट में
मेरे सन्देश की I
बटुआ निकाला जेब से,
देखा मेरी तस्वीर को
फिर कुछ यूँही सोच कर
मुझे वो देखता गया I
आरती की थाल लिए,
भार्या मैं शूरवीर की ,
तिलक लगा ललाट पर,
और यूँ विदा किया I
समय सा कुछ ठहर गया,
सुबह गई, दोपहर गया
वो रात फिर कहने लगी,
सैनिक का हो मान तुम
इसी में ये पहर गया I
और फिर आई खबर,
वीरता के सिपाही,
यूँ रहे ललकार थे
देखते थे जिधर,
दहकते अंगार थे I
कुछ गिर पड़े धरा पर,
और कुछ लड़ते रहे
दुश्मनो की छाती चीर
शौर्य गाथा गढ़ते रहे I
कुछ उगलते गोलों के बवंडर ,
कुछ हुए माटी - धूल थे I
शौर्य की गाथा यही,
लड़े जो शहीद,
वो वीर थे I
आई खबर मेरे भी घर ,
अब सिंदूर था मेरा बलिदान का
कैसे सम्भालूं , किसे सम्भालूं ,
वो मेरा अभिमान था I
इस दफा चुपके से आये,
तिरंगा बदन पर ओढ़ कर
पास में रखी घडी ,
और वो बटुआ निशानी सिकोड़ कर I
रक्तरंजित और छलनी,
वो बटुआ गुलाबी बोलता
कैसे लड़े वो वीर योद्धा,
राज़ सारे खोलता I
कांपते हाथों से बटुआ जो खोला,
फोटो मेरी और वो आखरी ख़त उनका,
मन मेरा यूँ डोलता I
आखरी सन्देश उनका,
मेरे आंसुओं को पोंछता I
मेरी बेटी और बेटे से कहना,
तैयार हों छाती को ताने,
जब - जब ये देश तुम्हें रहा पुकारता I
बस यही कहना मुझे ,
अब आखरी है अलविदा I
फौजी "पति का बटुआ "
इसमें है सिर्फ दुब , वो फूल
और देश की माटी की धुल
सिक्कों में न तोलो इसे तुम,
बस इतना ही बोलता I
