परंपरा ए जिंदगी
परंपरा ए जिंदगी
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें।
ये परम्परा अपने साथ निभायेगा कौन।
चली जा रही है जिन्दगी अपनी ही धुन में।
ये समझे और समझायेगा कौन।
फर्ज अपनी जगह
जिन्दगी अपनी जगह ये सिलसिला चलायेगा कौन।
सब कुछ है अगर जरूरी तो फिर बातों का सिलसिला चलायेगा कौन।
सबकुछ है तो फिर दिल का कोना सजायेगा कौन।
खुशियों के आंगन में खुशियों को मनायेगा कौन।
अपनी बात को बेमतलब बोले जा रहे थे अब तक।
हम क्या कर रहे थे और हमें क्या समझ रहे थे लोग।
ये हमें अब
समझ में आने लगा।
बेतरकिबी सी बातें कर दिया करते हैं हम।
हम तो दिल से जिन्दगी जीते थे ।
पर अपनों ने ही दिमाग से जीने पर मजबूर कर दिया।
अपने से पहले दूसरों के बारे में सोचा।
बस यही भूल करते चले गये हम।
जिसपे था अंधेपन तक विश्वास ।
उसी ने कढघडे पे लाके रख दिया।
फिर भला अपना मन समझता कौन।
हर रिश्ते में ठोकर ही मिली।
फिर भला रिश्ते निभाये कैसे।
बस लोगों को देख कर ही तसल्ली कर लें।
तो फिर भला हम जिन्दगी का बोझ उठाये क्यों।