परमहंसिनी
परमहंसिनी
वह स्वयं निराकार
पर देती समस्त जगत को आकार
नभ, थल हो या जल अपार,
यशस्विनी वह परमहंसिनी।।
मूक जग को करती वाचाल
सारे खग को दिया उसने
जीवन जगाने की सुर और ताल,
मनस्विनी वह परमहंसिनी।।
रंगा यह मंंडल हरेक रंग से
कृति अपनी यह देखने को
दिए दो चक्षु बड़े ढंग के
अर्श, फर्श, हर्ष, विषाद सब तेरे,
तपस्विनी वह परमहंसिनी।।
बनी रहे हर कृति की लय
न हो कभी कहीं कोई क्षय
सब तेरी अनुपम काया में समाहित,
ज्य़ोततिष्ममति वह परमहंसिनी।।
जन्मदात्री, पालनकर्ता सत्य राह दिखाती
गति बनी रहे वह पल पल जोर लगाती
गतिहीन होकर ज़र मरती वह जानती,
स्रोतस्विनी वह परमहंसिनी।।
