प्रकृति (नारी)
प्रकृति (नारी)
औरत नारी रुपसी बाला ओढी़ नहीं सिर्फ मर्यादा छाला।
जीवन उसका धार कटार बढ़ती वह पग-पग संभार।
सतित्व त्याग में सावित्री सीता कर्म क्षेत्र की पावन गीता।
वहीं विराट विश्व की जननी शोषण अन्याय कदाचार की हननी।
कण -कण की पीयूष प्रवाहिनी बन जाती भीषण ज्वाला वाहिनी।
वही कुल शीला कोमलंगी बालाअमर होती बन रणचंडी ज्वाला।
आँचल उसका जीवन-रस बरसाताऔर क्षिति -अंबर नदीश कहलाता।
दया माया मधुरिमा की मूर्ति सकारअकारण न लाए मन मे विकार।
पी नित हर -विष प्यालाबिखराती नूतन मणि उजाला।
हेतु वही पौरुष की पहचान पीयूष -वर्षिणी "प्रकृति" महान।