The Stamp Paper Scam, Real Story by Jayant Tinaikar, on Telgi's takedown & unveiling the scam of ₹30,000 Cr. READ NOW
The Stamp Paper Scam, Real Story by Jayant Tinaikar, on Telgi's takedown & unveiling the scam of ₹30,000 Cr. READ NOW

Surendra Sharma

Abstract Inspirational Others

4  

Surendra Sharma

Abstract Inspirational Others

प्रकृति करे पुकार

प्रकृति करे पुकार

3 mins
99


कहीं सूखा, कहीं बाढ़ भयंकर, क्यों अचानक आ जाती है?

मानव की यह प्रगति साधना, क्यों पल भर में मिट जाती है?

प्रकृति का अंधा-धुंध दोहन जब सीमा से बढ़ जाता है।

तब बनते भूकंप भूमि में,जब व्याकुल धरती रोती है।1


दयावान प्रभु ने हम पर, अनंत-अनंत उपकार किए।

भोले मानव ने उपकृत होकर, सब सहर्ष स्वीकार किए।

सहज-सरल था जीवन उसका, प्रकृति से सब मिल जाता था,

जल-जंगल,नभ और नदी,सागर, यह सब हमको उपहार दिए। 2


संग्रह की प्रवृत्ति जब पनपी,तब सब जंगल छोटे कर डाले।

भू-स्वामी बनकर रहने को, मिटा दिए सब नदी औ नाले।

सागर और नभ मेंभी हमने, भीषण अति- क्रमण कर- करके,

ताल-तलैया मिटा दिए सब, पर्वत भी छोटे कर डाले। 3


बल-बुद्धि देकर मानव को, सुंदर-स्वस्थ शरीर दिया।

मानव पोषण हेतु प्रभु ने,अन्न,वायु, शीतल नीर दिया।

सदा जो हमको देते ही आए, उन हाथों को काट रहे हम,

पोषण करने वाली माँ का, निर्दयी हो सीना चीर दिया। 4


कांतिहीन हुआ है हिमगिरी, बिखर गया है हिम का मोती।

पतित-पावनी नदी हमारी बेबस हो मानव मल ढोती।

वस्त्रहीन सा किया धरा को, भीतर से थोथा कर डाला,

सभ्य कहाती मानव-जाति, विषबेल फिर क्यों बोती? -5


अति दोहन ही किया है हमने,जल-जंगल, पर्वत,नदियों का।

दोनों हाथ लुटाया यौवन, वृक्ष, लता, कोमल कलियों का।

आत्मघाती बन बैठे हमअपने पैर कुल्हाड़ी मारी,

मात्र आज के थोथे सुख को, लूटा दिया है सुख सदियों का।6


जीवन सुगम बनाने हेतु भाँति-भाँति के उद्योग लगाए।

गति बढ़ाने को जीवन की भाँति-भाँति के वाहन चलाए।

भौतिकता की अंधी दौड़ में, अंधे होकर दौड़ पड़े हम,

जल-थल, नभ और वायु में भी, धुएँ के अंबार लगाए। 7


प्रकृति संतुलन हेतु ईश ने, भाँति-भाँति के जीव बनाए।

अपनी स्वाभाविक गतिविधि से मानव के सब मित्र कहाए।

अपनी सुख-सुविधा की खातिर नर ने उजाड़ दिए घर सबके,

उदर नहीं जिह्वा वश होकर बारी-बारी नर ने सब खाए। 8


नदी-नाले और ताल-तलैया,कुएं,झील सब सूख गए है।

बत्तख,बगुला,गुल और सारस, राजहंस भी रूठ गए है।

कछुआ, केंचुआ और मेंढक भी अब नाम पुराने से लगते हैं,

महानगरों के मालिक बनकर कानन-वन को लूट रहे हैं। 9


नहीं थिरकती अब गोरैयाँ प्रातः काल हो जाने पर।

जग नहीं जग पाता है अब, मुर्गे की बाँग लगाने पर।

कोयल का वह मधुर गान भी नगर के कोलाहल में खोया,

नहीं नाचता मोर कहीं अब, सावन में बादल छाने पर। 10


महानगरों की संस्कृति में पगडंडी वाले गाँव नहीं।

जल से भरी हुई नदियों में अब कोई चलती नाव नहीं।

आँगन-आँगन पेड़ नीम का, थी जिन पर चिड़ियाँ चहचहाती,

कहीं कौए की काँव नहीं, वह पीपल वाली छाँव नहीं। 11


घर के पक्के आँगन है सब,हरी-भरी अब घास नहीं।

फ्रिज वाले पानी से बुझती, तन-मन की अब प्यास नहीं।

षट-ऋतुएं आती और जाती, बातें बीते कल की लगती,

बारह मास तपन गर्मी की, सावन और मधुमास नहीं। 12


है घायल पग, पथ पथरीला, अब हमको रुकना होगा।

स्वाभाविक सहचर है प्रकृति, संग उसके ही चलना होगा।

नहीं हो शोषण, करें हम पोषण, हितकारी धरती माँ का,

काली अँधियारी रातों में, अब सूरज बन उगना होगा। 13


वर्तमान बने सुखदाई, बचें भविष्य,विचार करें।

वन्य-जीव हो सभी सुरक्षित ऐसा कुछ व्यवहार करें।

जल-थल,वायु, नदी औ नभ का, प्रदूषण हम दूर करें,

वृक्षों को संरक्षण देकर मानवता का उद्धार करें। 14



Rate this content
Log in

More hindi poem from Surendra Sharma

Similar hindi poem from Abstract