प्रकोप प्रकृति का
प्रकोप प्रकृति का
भूकंप में हिलती धरती और सिसकता नीला अम्बर,
गहरे सागर में भी आया कैसा ये भूचाल है,
कड़कड़ाती बिजलियां और अग्नि दहकते शोले
हमने ही तो फैलाया ये सारा मायाजाल है ।।
हुआ प्रकोप प्रकृति का, और फैली महामारी है,
मानव जन पर आई कैसी, विपदा बड़ी ये भारी है।
हमने दोहन किया, सदैव प्रकृति का हैैै,
अब इसको भी, कुछ देने की बारी है ।।
दो जून की रोटी पाने की खातिर
पाँच जून मनाना भी बहुत जरूरी है।
जगी चेतना अब भी न तो,
तैयारी विनाश की पूरी है ।।
पेड़ लगाएं पेड़ बचाएँ,
ये ही कर्म महान है ।
पर्यावरण की करें सुरक्षा,
और बढ़ाएँ धरणी का मान।।
छाँव मिलेगी घाव भरेगा,
भूख से न कोई तड़पेगा।
दर दर की भटकन न होगी,
मिट्टी को न अपनी तरसेगा।।
हरीतिमा से कर आच्छादित,
धरती को कर दें आल्हादित।
मन मुदित धरा का हो जाये,
ये नव प्रयास अब कर जायें।।
आओ मिलकर हम सब, यह संकल्प उठाएँ,
पर्यावरण को अपने, हरा भरा और स्वच्छ बनायें।।
