प्रियतमा
प्रियतमा
मैं पत्थर नहीं बना
बस मुस्कुराता रहा
मेरा यही अंदाज़
मुझको लुभाता रहा।
उनको सताता रहा
वो प्रिय रहे मेरे
जैसे नाटक
अदरक के पंजे,
अगस्त का ख़्वाब या
फिर अंडे के छिलके से
मेरी हर सोच पर
उसके उन्माद
बढ़-चढ़ आता रहा।
मेरी ज़ुबाँ को उन्होंने
काटना चाहा
पर कतर दिए उन्होंने
मेरी हर उड़ान के।
फिर भी अंधेरों में दिये सा
मैं लड़खड़ाता रहा
उसकी रज़ा को मैंने
बांध लिया खुद में।
उसकी हर नवाज़िश पर
मैं इतराता रहा
अक़्ल की नुमाइंदगी में
कहाँ प्रिया कोई
कहाँ प्रियतमा कोई।
दिल ज़ख्म सहता रहा
और हसरतों का चोर
बाज़ार से
मोल भाव लगा
मन का चैन
चुराता रहा।