परिदें देंगे गवाही
परिदें देंगे गवाही
मैं नदी का शोर हूँ मैं हूँ परिंदों का बयान
काट सकते हो अगर तो काट लो मेरी ज़ुबान।
मैं अगर मिट्टी महज़ होता दफ़न आसान था
मैं हवा हूँ, रोशनी हूँ छेंक लूंगा आसमान।
बिक रहे हैं ख़ुशनुमा नक़्शे खुले बाज़ार में
खेत में उगता नहीँ हंसता हुआ हिंदुस्तान।
बह गया ऐय्याश सूरज रात के सैलाब में
रोशनी के नाम पर हैं शेष कुछ जलते मक।
खा गया गर वक़्त वहशी फूल की नस्लें तमाम
जो किताबों में दबे हैं फूल खोलेंगे ज़ुबान।
फ़िक्र बाढ़ों में शहर के डूबने की कब उसे
वह बचाना चाहता बेदाग़ ख़तरों के निशान।
बढ़ गईं नज़दीकियां पर दूरियाँ घटतीं रहीं
कांच की दीवार है शायद हमारे दरम्यान
पंख की ख़ातिर गंवा बैठे हैं अपने पांव हम
छोड़ना चाहते हैं अपने क़दमों के निशान।