नव यौवना
नव यौवना
प्रीत की कोई भी रीत में ना जानू रे बावरी ,
लेकर चली हूं अपनी भरी हुई यौवन की गागरी।
नवयौवना के तन में जब लगती है ज्वाला सी री,
तब संयम से और अपने चरित्र को जरा साध री।
अब बीत गयी अब शरद, शीत की रातें ,
ऋतु बसंत कैसी मधुरिमा मधु भर लायी !
तत्पर चखने को कुछ ऐसे जाग्रत हो गई ,
मानो सम्पूर्ण धरा व गगन की तरुणायी !
मादक सी मंद मंद पवन सुवन बह रही ,
मलंग और मदहोश कर रही है पुरवाई !
पुलक भर रही रही है ऐसे तन मन में ,
जगाकर अनुपम व अलौकिक अंगड़ाई !
वन उपवन सब कैसे चहक महक रहे हैं,
देखो कैसे खिल रही घर आंगन फुलवारी !
मधुकर मधुरस पीकर गुंजन कर रहे हैं ,
और चहूँ ओर हॅ॑स विहॅ॑स रही है विभावरी !
खग अब कुल कलरव किलोल कर रहा है ,
किसलय कैसे डोल रहा पीने मधुरस गागरी !
आए ऋतुराज हमारे समक्ष प्रकट हुए ऐसे ,
मानो प्रकृति हमें सुना रही हो भावरस दादरी !
बसंत ने ऐसा वश में किया हृदय का स्पन्दन ,
कि, बाहुपाश में बिंधने को विकल हुई कुँवारी !
कैसे दहक रहा पलाश, सुमन उपवन से सुगंधित ,
अलसाई सी रमणी अपने पियमिलन को बौराई !