हम अब कहाँ जाएँ
हम अब कहाँ जाएँ
जैसे-तैसे टक्कर, ठोकर खाकर दफ्तर हम पहुँच ही जाएँ,
देख व्यवस्था का हाल मन से निकले बस हाय!!
सड़क में गढ्ढे या गढ्ढों में सड़क समझ न कोई पाए,
और चेष्टा सिस्टम की रुकती ही कभी न हाय!!
चले कार्य निर्माण का पूरे साल पसीना बहाएँ,
सिस्टम के रखवाले देश को चूना कैसे लगाएँ!!
गढ्ढों में हम खेलें व किनारे सौन्दर्यीकरण पाएँ,
देख व्यवस्था का हाल मन से निकले बस हाय!!
देश के नौज़वानों के लालों की अतुलित निष्ठा हाय,
बेईमानी का कोई मौका हाथ से छूट न जाय!!
भ्रष्टाचार की गंगा में सब मिल के डुबकी लगाएँ
बड़ी या छोटी मछली मिलजुल सब कोष पचाएँ!!
और परिणामों की गणना में शून्य खड़ा इठलाए,
बरसों से है यही दशा-ऐसे ही चलता जाय!!
देख व्यवस्था का हाल मन से निकले बस हाय।
ऐसी उबड़ खाबड़ व्यवस्था को छोड़कर भला हम कहां जाएं