प्रेम
प्रेम
मेरे रगो में दौड़ता है प्रेम
इसलिए .........
कहीं नहीं मिली "नफ़रत "
चाह कर भी नहीं कर सकती
किसी से नफ़रत
और उनसे तो हरगिज़ नहीं
जिन्होंने बोया था प्रेम का बीज
मेरे अंतस मन में
किसी ख्वाब की तरह
सपनों के आसमान पर
बोया गया था एक बीज
न जाने कहां से सिंचित
और पोषित होता हुआ
एक दिन विशाल वृक्ष
बनकर मेरे समूचे अस्तित्व
को ढंक दिया
और उस घने वृ
क्ष के
छांव तले
मैं दूब की भाती
पसरने लगी हूं
वह अद्भुत
अलौकिक कल्पवृक्ष
बचाया है मुझे
चिलचिलाती धूप से
मूसलाधार बारिश से
माघ के पाला से
आंधी और तुफ़ान से
बिजली कड़कने से
बादल के गरजने से
हर मुसीबत और
भय से , आतंक से ,
कोलाहल से और
हर बला से
आज
मैं कैसे नफ़रत करूं ?
जिनके बुनियाद पर मेरा वजूद है ?