प्रेम राग
प्रेम राग
1. जाने क्यों...!! मुझे लगता है कि मैं नहीं तो उदास हो तुम.
हो सकता है तुम उदास ना हो, पर अब `तुम` और `मैं` में फर्क करना आसान नहीं पाती.
जानती हूँ तुम अब आवाज़ नहीं दोगे, नहीं कहोगे कुछ,
इसीलिए बिना बताये, मैं चली आती हूँ, तुम्हारे ख्यालों में...संगीत जहां, मुझे ढूँढने का गूँज रहा होता है.
मैं उसकी ताल पर झूमती हूँ, लहराती हूँ और बिना रूकावट चख लेती हूँ तुम्हारी आँखों को.
तभी जान पाती हूँ कि सागर छलकने से पहले, प्रेम पगे आंसुओं का स्वाद मीठा होता है,
2. जाने क्यों...!! मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी बातों में मेरा समावेश इतना कोमल हो कि,
एकाकार होने का, प्रमेय संक्षिप्ततर ना रहे मैं फ़ैल जाऊं उन सारी जगहों में,
जहां तुमने कभी लगाया हो कोई पूर्ण अथवा अर्ध विराम और तुम उस नज़ाकत से समेट लो मुझे,
जैसे जाता हुआ सूरज समेटे अपनी किरणें.
3. जाने क्यों...!! सब फासले हवाओं में तिरा देने के बाद भी ,
और तुम्हारी पलकों तले सिमट आने के बाद भी बचता है एक रेतीलापन और शुष्कता.
तब, ना चाहते हुए भी, कठोरता अपनाते हुए, पूरे निश्चय से पूछना चाहती हूँ तुमसे...
"क्या ज़ुबां की शुष्कता, रेगिस्तान की शुष्कता से कम हुआ करती है?"