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Pooja Anil

Abstract

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Pooja Anil

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अनुचित कलंक

अनुचित कलंक

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प्रत्येक दिन, उन दोषों के साथ,

मैं थोड़ा थोड़ा खुद को निगल जाती हूँ

बिना किसी कारण

तुम जो अनुचित कलंक मुझ पर लगाते हो।

प्रत्येक दिन मैं थोड़ा थोड़ा

काले बुरादे में बदलती जाती हूँ,

जिसमें स्वयं मेरा ही,

सांस लेना कष्टमय हुआ जाता है।

मैं कोशिश करती हूँ

किसी प्रभावी मुखावरण से

मुंह और नाक ढकने की,

जो रिसाव से अभेद्य हो।

किन्तु बुरादा नहीं रुकता,

हमेशा कोई न कोई राह खोज ही लेता है,

खुली हवा तक पहुँचने की।

एक रोज़ तुम्हारे शहर का आकाश,

आच्छादित होगा

एक काले बुरादे से निर्मित बादल से।

लोग सूर्य रश्मियां नहीं देख पाएंगे,

मौसम विज्ञानी चकित हो कहेंगे कि

कदाचित यह किसी बुझी हुई

आकाशगंगा का चूर्ण है।

जो लाखों वर्ष पूर्व विद्यमान थी।

कोई उनसे सवाल नहीं करेगा कि

कैसे वह सारा चूर्ण हमारे युग में आ पहुंचा?

लेकिन सिर्फ तुम जानते होंगे कि

यह बादल उन अनुचित कलंकों से बना हुआ है

जो अब हर तरह के दासत्व से मुक्त हो चुके हैं।



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