प्रेम पूर्ण हुआ – तुमसे दूर रह
प्रेम पूर्ण हुआ – तुमसे दूर रह
तुम्हारी हर तस्वीर
क्यों लगता है
मुझे ही निहारती है,
मैंने तुम्हें छोड़ दिया
ये सच नहीं,
सच तो यह है कि
तुम्हारे शरीर से
दूर चला गया
मेरा शरीर।
हर रास्ते पास आने के
मैनें बंद कर दिये,
फिर भी मैं जानता हूँ
मुझे प्रेम है,
अंतर का प्रेम
अंतर तक ही सीमित।
तुम्हें दरकार थी
शरीर की दोस्ती की,
दोस्त बढाती रही तुम
शरीर मेरा भी,
खामोश न रह सका
तुमने प्रेम को बांटना चाहा
प्रेम मेरा बंट न सका।
तुम रोक नहीं सकती
मुझे प्रेम करने से
मैं किसी को कहता नहीं
खुश हूँ... क्योंकि
मेरे और प्रेम के बीच
अब कोई नहीं
तुम भी नहीं।
काश ! तुम होती
हो सकती,
प्रेम थोड़ा दूर होता
तो तुम थाम लेती,
जिसे महसूस कर
आनंदमय होता हूँ,
मैं अकेला।

