प्रेम मग्न
प्रेम मग्न
बोलती बंद, शर्म से आंखे झुक गई
जब प्रीतम से आंखे चार हुई
दिल की धड़कन तेज हो चली
जैसे बिजली का हुआ वार कोई ||
मन्नते प्रार्थना रोज थी करती
ईश्वर ने जैसे आवाज सुनी
हार बैठी थी दिल जान जिस पर
उस प्रीतम से आन मिली ||
रोज प्रेम के सपने देखे
बातें खुद से करने लगी
बिन पंख के नभ नाप ले
नीड़ भी उसकी हराम हुई ||
ना देखे जो प्रीतम की सूरत
अधीर बेचैन हर क्षण हुई
इत-उत डोल वो खोजती फिरती
काम में भी उसका ध्यान कोई ||
सौगात प्रेम की मिल गई जो
भावनाओ मे ही बह चली
इश्क के समुद्र में गोते लगाती
अब ना किसी का ध्यान कोई ||

