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Satyendra Gupta

Abstract

4.7  

Satyendra Gupta

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प्रेम और विरह

प्रेम और विरह

2 mins
260


कभी मैं देखता था उसे

कभी वो देखती थी मुझे

सुकून नहीं था मुझे

सुकून नहीं था उसे

जीने मरने की कसमें खायी थी हमने

साथ निभाने की कसमें खाई थी हमने


ना जाने क्यूं हर पल हर जगह

सिर्फ वही नजर आती थी

ये प्यार था या और कुछ

समझ में नही आया था मुझे।


काश जान पाता की प्यार एक फूल है

अंजाम फूलों की कांटो से उलझना होगा

बिताए गए सुखद लम्हों को

दुख भरी जीवन के साथ गुजारना होगा

जो कसमें खाती थी साथ निभाने की

उसे मेरा साथ छोड़कर भी जाना होगा।


लैला मजनू की कहानी याद आ जाता

तो उसकी यादों में जीवन गुजारना नही होता

फूल तो ना जाने कहा चली गई

मुझे काटों भरी जीवन गुजारना नही होता।


मैं उस दिन को कोसता हूं

जिस दिन वो टकराई थी मुझसे

मैं उस दिन को कोसता हूं

जिस दिन मीठी मीठी बात बतियाती थी मुझसे

काश मै समझ जाता की

पानी का कोई रास्ता नहीं होता

जिधर मिले ढलान उधर को वो बह जाता

काश मै समझ जाता की

की प्रेम का रास्ता विरह तक जाकर

हो जाता है खत्म

तुम लाख करो प्रयत्न

तुम्हे दुख ही मिलेगा

मैं कैसे कहूं की

ये मेरे साथ ही हुआ है


या किसी और के साथ भी हुआ होगा

मुझे नहीं था पता

प्रेम का अंजाम विरह की, आग में जलना होगा

प्रेम का अंजाम विरह की,आग में जलना होगा

प्रेम का अंजाम विरह की, आग में जलना होगा।।


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