प्राणाधार
प्राणाधार
स्वार्थलोलुप मानव देखो,
कैसे तुमको है काट रहे,
अपने ही पतन को नहीं,
अब भी भांप रहे,
प्रदूषण के विकराल दानव,
तभी तो उनको ग्रास रहे।
फिर भी तुमने सदा से ही,
उसे प्राणवायु के सार दिए।
हैं सदियों ही से तूने,
इस जीवन को उपहार दिए।
न जाने कितने ही कवियों के,
महाकाव्यों को आकार दिए।
कभी यमुना के तीरे कदम्ब बनके,
तुम कान्हा की लीला के स्थल बन गए।
तो कभी पंचवटी निर्मित कर,
माता सीता के सतीत्व को ढक गए।
सौभाग्यवतियों के सावित्री व्रत के लिए
वट वृक्ष तुम्हीं बन गए।
स्वार्थलोलुप मानवों की कुटियाओं ,
का खम्भा भी बन तुम तन गए।
तो कभी कला संस्कृति के नाम पर,
कलाकृति बन दीवारों पर भी टंग गए।
मूर्ख मानव की बाल लालसा के लिए ,
तुमने न जाने कितने आकर लिए।
जीवन ने जब झटके हाथ,
तब तुम्हीं खुद पे सवार कर चल दिए।
इतना ही न था काफी तुमको,
तुम तो संग में धू-धू करके जल दिए।
हे! कान्हा के कदम्ब,
वट सावित्री के वट,
प्राणवाहिनी वायु देने वाले
तुम ही हो मानव जीवन,
के सच्चे केवट।
तुम वो देवदारु स्तम्भ
जिसका अवलम्ब पा
मानव संस्कृति पल्ल्वित हुई।
है ये विडम्बना इनकी,
कि ये तेरे सारे ऋण भूल गई।
तुम आश्रय और आशय,
तुम्ही हो मेरे जीवन का प्राणाधार।
धरा का वो सुकोमल आँचल जो,
माँ धारा ने दिया हम पर पसार।
विहगों का तुम आश्रय-स्थल,
और कवियों की कल्पना का आकार।
हे ! वृक्ष तुम हो जीवन दाता,
हो तुम मेरे इन प्राणों का आधार।
तुम ही से होता आया है,
जीवन सदियों से साकार।
