पिंजरा
पिंजरा
रह कर अक्सर बन्दिशों में मैंने,
खो दिया संसार ये सुनहैरा।
मेरी भी तम्मन्ना थी कभी,
रहता कोई हमसफर भी अपना।
अब तो मानो मन भी अपना,
मान लिया जैसे आजादी हो एक सपना।
सुबह होती थी आशाओं भरी,
गुजर जाती थी मगर सांझ भी यूँ ही।
फिर आती थी रात अंधेरी,
सूई चुभने दिल में बड़ी।
सिलसिला ये चलता रहा,
तिल ही तिल मैं जलता रहा।
लगने लगी घुटन सी अब तो
मन मे बस ये एक अभिलाषा लिए।
कोई तो इस पिंजरे को खोल दे,
फिर से जीने का एक मौका दे दे,
उड़ना चाहूँ मैं भी आसमां में
अपने पंखों को फैलाये।
बिते दिन और बिती रातें
आ गया वो अद्भूत क्षण,
जब मालिक ने दिखाया
मुझ पर रहम।
खोल दिया उसने पिंजरे का द्वार,
और करना चाहा मुझे आजाद।
कोशिश मैंने भी की उड़ने की मगर,
उड़ ना सका दो पल भर।
पड़ी थी जो बेड़ियां मेरे मास्तिषक पर,
ले गयी हो जैसे सब कुछ भंवर में।
अब तो मेरी धड़कनों से भी,
निकलती है बस यही ध्वनि।
उड़ना भूल चुका हूँ मैं अब,
उड़ना भूल चुका हूँ मैं अब।
