मायूसी
मायूसी
निकला करता था कभी, आसमां को झुकाने ईक दिन,
कभी अपने ठोकरों में,जमाने को रक्खा करता था।
कभी किया करता था,बेपनह मोहब्बत की बातें अक्सर
कभी सैकड़ों में भी रखता था, अपनी पहचान बनाने का जिगर।
मगर तकदीर को था कुछ और ही मंजूर, ले आया वो मुझे बीच भंवर,
लोगों के बीच रह कर भी, रहाँ अंजान सभी से मैं।
मानो ईक अंजान सख्शियत, बन बैठा जाने मैं कैसे?
खुद को भुला दिया है मैंने, और ना रही कोई आशा की किरण,
अब तो बस छायी है ,मायूसी बस मायूसी ही मेरे मन।
