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Ankit Saha

Drama

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Ankit Saha

Drama

पिंजरा

पिंजरा

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रह कर अक्सर बन्दिशों में मैंने,

खो दिया संसार ये सुनहैरा

मेरी भी तम्मन्ना थी कभी,

रहता कोई हमसफर भी अपना।


अब तो मानो मन भी अपना,

मान लिया जैसे आजादी हो एक सपना।

सुबह होती थी आशाओं भरी,

 गुजर जाती थी मगर सांझ भी युही।


फिर आती थी रात अंधेरी,

शुई चुभूने दिल में बड़ी

सिलसिला ये चलता रहा,

तिल ही तिल मैं जलता रहा

लगने लगी घुटन सी अब तो।


मन में बस ये एक अभिलाषा लिए

कोई तो इस पिंजड़े को खोल दे,

फिर से जीने का एक मौका दे दे,

 उड़ना चाहु मैं भी आशमां में

अपने पंखो को फैलाये।


बिते दिन और बिती रातें 

आ गया वोह अद्भूत पल,

जब मालिक ने दिखाया 

मुझ पर रहम।


 खोल दिया उसने पिंजरे का द्वार,

 और करना चाहा मुझे आजाद।

 कोशिश मैंने भी की उड़ने की मगर,

  उड़ ना सका दो पल भर।


पड़ी थी जो बेड़िया मेंरे मास्तिषक पर,

ले गयी हो जैसे सब कुछ भंवर में।

अब तो मेरे धड़कनों से भी,

निकलती है बस यही ध्वनि।


उड़ना भुल चुका हूँ मैं अब,

उड़ना भुल चुका हूँ मैं अब।


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