पारस
पारस
हम तो रोशनी के सौदागर समझते थे
आप तो अंधेरे के तलबगार निकले
गली कूचे में दीवारें उठ खड़ी हुई
शहर में कैदखाने इंसानों से बंदिस्त निकले
सरे बाजार बिकने का स्वांग रचा गया
आप तो खरीददार बड़े सुरमा निकले
सादगी में छिपी शमशीरों पर ध्यान रखना
नफरतों के जंगल से आग के शोले निकले
जुल्म हमेशा दोगुना होकर मिलता है 'नालन्दा'
अय्यारी की दुनिया के आप पारस निकले
