STORYMIRROR

Nalanda Satish

Abstract Tragedy

3  

Nalanda Satish

Abstract Tragedy

पारस

पारस

1 min
379

हम तो रोशनी के सौदागर समझते थे

आप तो अंधेरे के तलबगार निकले


गली कूचे में दीवारें उठ खड़ी हुई

शहर में कैदखाने इंसानों से बंदिस्त निकले


सरे बाजार बिकने का स्वांग रचा गया

आप तो खरीददार बड़े सुरमा निकले


सादगी में छिपी शमशीरों पर ध्यान रखना

नफरतों के जंगल से आग के शोले निकले


जुल्म हमेशा दोगुना होकर मिलता है 'नालन्दा'

अय्यारी की दुनिया के आप पारस निकले



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract