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Deepali Mathane

Tragedy

3  

Deepali Mathane

Tragedy

हमारे जख़्म

हमारे जख़्म

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ना जानें कब हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुरानें हो गए?

नासूर बनके धडकते थे सीनें में गुज़रे अब जमानें हो गए।


रिसतें जख़्म खत्म़ होते अवशेषों के बंद आशियानें हो गए।

दुवा-बद्दुवाओं से परे इन्स़ानियत के सारे फसानें खो गए।


रहमतों की कश्तियों से गुल़ज़ार कहीं वो किनारे खो गए।

तन्हाईयों में इतरातें पलकों के सारे सपनें यूहीं सो गए।


इंत़ज़ार की घड़ीयों के सारे सित़म सुहानें हो गए।

वादा ख़िलाफ़ी ना कर सके इतनें हम दिवानें हो गए।


हसरत-ए-नाद़ान की दिलजोई के बहाने हो गए।

खुद के ही ज़ख़्मों से ना जाने कब हम अऩज़ानें हो गए?



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