पिघलते पहाड़
पिघलते पहाड़
अपने जीवन के इम्तिहानों के
कभी था ही नहीं उस मासूम को ज्ञान
वो कठिनाइयों में घिरी है इसकदर
बेपरवाह होने का कर नहीं सकती गुमान।
फिर भी खामोश है, रहती है चुपचाप
लड़ना किसी और से नहीं तकदीर से है अपनी
मचा के सोर भला कैसे कोई सकता है बदल
झुकी भीगी पलकें लिए जाने कब गम दोस्त बनी।
बिना माँ की छोटी बच्ची थी, मन की सच्ची थी
सौतेले बन गए रिश्ते और रिश्तेदार उसके लिए
छल - कपट ना जानती वो भोली - प्यारी इतनी
अपनों में द्वेष भरे थे जहरीली जुबां आँखों में रोष लिए।
किस तरह बीत रहे थे उसके जीवन के दिन
बिना शिकवा - शिकायत करती रही बस कर्म अपने
कौन उसे चाहता है, किसे है जरुरत यहाँ भला उसकी
जानती थी तो सिर्फ वो मुस्कुराकर जख्मों को ढंकने।
जो मिला उसी में करती रही बेबस वो गुजारा
कभी मिलेगी जीने की नई उम्मीद ये जुर्रत हो जैसे
बिखरे हालातों को समेटते जैसे युग - सा था बिता
कोई आकर कर जाये चमत्कार ये चमत्कार हो तो कैसे।
सूखे पेड़ के नीचे भी हरी दुब उग आती है
सालों पड़ी सूखी जमीन को बरसात भिगो जाती है
लगातार किए सच्चे भाव से प्रयास भी रंग लाती है
पहाड़ों सा कठोर हृदय को निस्वार्थ प्रेम ही पिघलाती है।
अंततः जीत ही गई मासूमियत भरी सेवा उसकी
कबतक निगाहें फेर सकता है परमपिता भी बूत बन
सँवारे कैसे ना एक कर्मयोगी का समर्पित जीवन
बंद आँखों तक भी पहुँच जाता है निश्छल पूजन।
