STORYMIRROR

पिघलता पत्थर

पिघलता पत्थर

1 min
563


बड़ा नाज़ था उसे अपनी सख़्ती का

ना तराशे जाने की आस,

ना परखे जाने की आह

ना फ़ेंके जाने का डर,

ना गहनो में जड़ने की चाह।


ना कभी आसमा छूने की ख़्वाहिश,

ना उछाले जाने का डर

बस परत दर परत जज़्बात समेतटी

वो यूँ ही कहलाती गयी पत्थर।


पर आज...

मौसम की ख़ुमारी डराती है,

किसी की हरारत उसे सहमाती है

जहा इश्तियाक़ निगाहें उसे

गुमान करती है

वही तराशती नज़रें उसे खुदा बनाती है


तूफ़ान भी जिसे हिला ना सकी

एक सहलाहट से आज वो कसमसाती है

कील भी जिसे तोड़ ना सकी,

आज एक साँस में भी वो उलझती जाती है।


बड़ा नाज़ था जिसे

पत्थर सी सख़्ती का आज,

वो यूँ ही मोम सी पिघलती जाती है

बस यूँ ही मोम सी पिघलती...जाती है..।।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy