फ़र्क
फ़र्क
धरती, नदी, धरा,
अम्बर भी तेरा,
अगर धन(पैसा) है,
तो सारा जहाँ भी तेरा,
चाँद की चाँदनी तेरी,
सूर्य का लालिमा भी तेरा,
सितारे तक रोशनी देती जहाँ,
वो अमीरो की हवेली है,
वो अमीरो की हवेली है,
मजदूरों का है क्या,
गरीबों का है क्या,
वो गरीबी झेल लेंगे,
अमीरो का है क्या,
वो मजदूरी इनका थोड़ी रख लेंगे,
दिखें जो शहरों मे इमारते चमचमाती,
मजदूरो के पसीने से ही है,
इसमें रोशनी आती,
गरीबो की कमाई का,
मजदूरो की कमाई का,
थोड़े से खा जाते, ये सरकारी बराती,
जहाँ सिस्टम अमीरों का,
यहाँ सिस्टम अमीरों का!
वो भूखे है, वो भूखे है,
मुद्दा बड़ी वो करते है ऐसे,
गरीबो का मसीहा बन गये जैसे,
पत्रकार, कैमरा, टी.बी. दिखे तैसे,
वो बड़ी इमारते बना करके,
खुद झोपड़ी मे सो जाते हैं,
साफ करके शहरो को,
खुद गंदगी मे रहते है,
वे मजदूर है, साहेब,
फ़र्क किसको क्या पड़ता है,
पानी उनका भी दूषित है,
ये किसको दिखता है,
साहेब, ये जो घर मे आपके,
कुर्सी, टेबल, आलना है लगा
माफ करना, फर्नीचर जिसे तुम हो कहते,
जो तेरी हर फरमाईश है
ये किसी मजदूर की ही नुमाइश है,
वो सड़क बना करके,
खुद मिलों पैदल चलता है,
वो मजदूर है, साहेब
फ़र्क किसको क्या पड़ता है,
पैर उसका भी जलता है,
बदन उसका भी तपता है,
पसीना उसका भी चलता है,
गर्मी मे गश्त उसे भी लगता है,
पर, फ़र्क किसको क्या पड़ता है,
वो मजदूर है, साहेब
इतना कहाँ समझता है,
फिर भोर होना है,
रोटी की खोज में,
उसे फिर से, कही
ट्रेन, ट्रक तो कही,
भूख की चपेट में आना है,
तुम्हार क्या है, साहेब
सुबह 9 बजे से
न्यूज चैनल पर
पेमेंट ले कर चिल्लाना है,
न्यूज वालों को TRP, और
तुम्हें आपनी रोटी , बढाने
का जुगाड़ बढ़ाना है,
मत करो, मत करो,
टूट चुका है वो,
तेरे हर कागजी वादों से,
तेरे राजनीति के दावों से,
वो मजदूर है, साहेब
फ़र्क किसको क्या पड़ता है,
पैर उसका भी जलता है।
