पहरेदार
पहरेदार
चार फिट की चार दीवार
खड़ी है चारो ओर।
बीच में एक पहरेदार खड़ा है
तानकर शस्त्र अपना ,
दे रहा है आवाज।
रूक जाओ तुम वहीं,
यहॉं एक पहरेदार खड़ा है।
घूर रहा है बाहर ,चारो ओर
लग रहा खूंखार नजरों से
होठों से है खामोश ,
कानों से भी देख रहा है
तन से अकड़ा हुआ
कैसा ये चट्टान खड़ा है ।
फट रहा है बादल ,
गरज रही है बिजली ,
तप रहा है सूरज
भीग रहा है सावन
जम रही है चॉदनी
पुस माघ की शीतल ओस
भीगों रही धरती का तन
फिर क्यों यह एैसे
तैनात खड़ा है,
तैनात खड़ा है
शायद मौत भी इससे दूर खड़ी है
देखो कैसा यह पहरेदार खड़ा है ।
ईद ,दीवाली , होली , दशहरा
नहीं है कोई इनसे नाता शायद
सबको कर दिल से दूर ,
कैसे यह तैनात खड़ा है
अरमानों को दबा दिल में,
मन से बैखोफ
देखो कैसा यह पहरेदार खड़ा है
हॉ, यह पहरेदार खड़ा है!